- बालेन्दु शर्मा ‘दाधीच’।
भविष्य के विज्ञापनों के बारे में दिलचस्प खबरें उड़ रही हैं। जैसे कि भविष्य के विज्ञापन विज्ञापनों जैसे नहीं दिखेंगे। या फिर यह कि विज्ञापनों का भविष्य आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के रहमो-करम पर होगा, या तब के विज्ञापन हमारे समझने लायक भाषा में नहीं होंगे। क्या झमेला है यह सब?
विज्ञापनों के क्षेत्र में बदलाव तो खासा हुआ है। दुनिया के 25 फीसदी विज्ञापन देखते ही देखते सिर्फ गूगल और फेसबुक के हाथ में आ चुके हैं। सारी दुनिया के अखबारों में छपने वाले विज्ञापन एक तरफ और इन दो डिजिटल संस्थानों को मिलने वाले विज्ञापन एक तरफ। आपको और हमें अहसास होने से पहले ही अचानक डिजिटल और तकनीकी माध्यम इतना बड़ा बन गया है।
बदलाव का यह सिलसिला चलता रहेगा और तकनीक के बदलने की रफ्तार अभी और बढ़ेगा। तो आने वाले पच्चीस-तीस सालों में आप और हम उस तरह के विज्ञापन नहीं देख रहे होंगे जैसे कि आज देखते हैं। न ही हम विज्ञापनों से प्रभावित हो रहे होंगे। क्योंकि असल में हम विज्ञापन देख ही नहीं रहे होंगे और अगर कोई विज्ञापनों को देख रही होगी तो वह होगी तकनीक जो हमारी तरफ से फैसले करने में सक्षम होगी।
जी हां, स्वागत है आपका 2050 में, जब आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस हमारे दैनिक जीवन, कामकाज, पसंद-नापसंद, आदतों और यहां तक कि व्यक्तित्व का भी अटूट हिस्सा बन चुकी होगी। कुछ बातों पर गौर कीजिए। इंटरनेट ऑफ थिंग्स आज एक हकीकत है। इसमें आपके घर और दफ्तर की तमाम इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल चीज़ें इंटरनेट से जुड़ी होती हैं।
वे काफी हद तक कृत्रिम बुद्धिमत्ता से युक्त हैं और फैसले करने तथा कदम उठाने में सक्षम हैं। एक दशक की अवधि में शायद यह तकनीक इतनी ही आम हो जाएगी जैसे कि आज मोबाइल फोन हैं। कितनी बुद्धिमान है आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस? आपके फ्रिज में दूध खत्म हो गया है तो वह आपके दूधवाले को फोन करके सतर्क कर देगी और घर में आग लगने पर कोई स्मार्ट सेंसर खुद ही फायर ब्रिगेड को फोन कर देगा। इस तरह के फैसले और घटनाक्रम अब विज्ञान कथाओं की बात नहीं रह गए हैं।

बिग डेटा का नाम आपने सुना होगा। टेक्नॉलॉजी आपके हर आचरण पर नज़र रख रही है और दुनिया जहान का डेटा इकट्ठा कर रही है। आपकी पसंद-नापसंद को वह आपसे बेहतर जानती है। आपके शरीर, कामकाज, दिलचस्पी, बीमारियों, सोशल लाइफ और प्राइवेट लाइफ को भी शायद उससे बेहतर कोई नहीं जानता। न आपके माता-पिता, न आपका जीवनसाथी और न आप खुद।
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ऐसे उपकरण भी आ गए हैं जो खुद ही चीजों को पैदा करने में सक्षम हैं, जैसे कि थ्री-डी प्रिंटर। ऐसे ऑनलाइन माध्यम आ गए हैं जहां से कुछ भी ऑर्डर करके मंगवाया जा सकता है, कोई भी सेवा खरीदी जा सकती है, कोई भी चीज़ बुक कराई जा सकती है। अगर आप तकनीक को अपनी तरफ से फैसले करने की हरी झंडी दे देते हैं, जो कि धीरे-धीरे बहुत सहज और सामान्य हो जाने वाला है, तो फिर अपने लिए शॉपिंग करने, प्लानिंग करने, चीजों को परखने आदि का जिम्मा भी तकनीक के हाथ में चले जाने वाला है।
यह बदलाव इतनी सहजता से होगा कि आपको अहसास ही नहीं होगा कि कब आप तकनीक के इस क्रांतिकारी दौर में आ पहुंचे। जरा याद कीजिए, आज मोबाइल फोन में आप जितनी सहजता से हर किसी एप्प को तमाम तरह की अनुमतियां देते चले जाते हैं, वैसा कभी अपने ऑफलाइन जीवन में भी करते हैं क्या? कितना चुपचाप सब कुछ घटित हो गया है!
तो भविष्य में अगर आपके लिए कपड़े खरीदनें जाने वाले हैं तो आपको पता चलने से पहले ही तकनीक कपड़े खरीद चुकी होगी। बाथरूम में शैंपू खत्म हो गया है या फिर जूतों की पॉलिश खत्म हो गई है इसका पता भले ही आपको या परिवार में किसी और को हो या न हो, तकनीक को ज़रूर होगा। और उसे पता होगा कि आपको किस ब्रांड की पॉलिश पसंद है क्योंकि वह देखती रही है कि आपने पिछले दिनों अपने दफ्तर के जिस सहयोगी को चमचमाते जूतों के लिए कॉम्प्लिमेंट दिया था वह कौनसी पॉलिश इस्तेमाल करता था।
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सवाल उठता है कि तब विज्ञापन जगत किसे प्रभावित करेगा- आपको या तकनीक को? अगर फैसले तकनीक करने वाली है तब आपको प्रभावित करके उसे क्या मिलेगा? लेकिन तकनीक को प्रभावित करना आसान नहीं होगा क्योंकि तकनीक अच्छे-बुरे के साथ-साथ असली-नकली में भी भेद कर सकेगी और आंकड़ों की सच्चाई की तफ्तीश करना उसके लिए कुछ सैकंड का काम होगा।
ऐसे में विज्ञापनों की दुनिया कैसी होगी? क्या भविष्य के विज्ञापन वीडियो, संगीत, इश्तहारों या टेक्स्ट की शक्ल में होंगे या फिर तकनीकी संकेतों (सिग्नल्स) के रूप में आएंगे? इन्हें इंसान बनाएंगे या तकनीक ही बनाएगी? यह सवाल हम आपके लिए छोड़ देते हैं।
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