भारत वो देश है जो विश्वगुरू था, आज हम विश्वगुरु बनाने की बात फिर से करते है लेकिन कोई विश्वगुरु नफरत, हिंसा और भेदभाव की राह पर कैसे चल सकता है। सवाल उठना लाजिमी है। भारत एक देश है, जहां कई राज्य हैं। इन राज्यों में कई शहर और गांव हैं। यहां कई लोग रहते हैं। सभी की चमड़ी का रंग एक-समान ही होता है यहां शर्मा, खान, जोसेफ और सिंह सभी रहते हैं।
यहां बात धर्म और जाति की नहीं बल्कि एक विशेष धर्म की है, जिसका उदय, प्रचार के साथ लगभग 613 ईसवी में हुआ। इस धर्म का मूल लोगों ने अपने-अपने हित के रूप में ढाल लिया और धर्म को विकृत कर दिया। वो धर्म, जो इंसानियत की बात कहता है, उसे मानने वाले अनुयायियों ने भारत में तलवार की नोक पर धर्म-कबूल करने पर विवश कर दिया। वो अनुयायी उस धर्म के मूल को पूरी तरह भुलाकर उस धर्म के उस रूप को मान रहे थे, जो रूप उस धर्म का कभी था ही नहीं। ये बात भारतीय इतिहास की कई किताबों में दर्ज है, जो किसी पुस्तकालय में धरोहर के रूप में सुसज्जित हैं।
उस समय जो हुआ, वो नहीं होना चाहिए था। आज हम ये कहते हैं। कहना भी चाहिए, लेकिन हम आज जो कर रहे हैं वो आखिर क्यों? हम यानी भारत और भारत यानी विश्वगुरु तो एक गुरु के यहां यदि कई शिष्य है तो क्या वो गुरु उन शिष्यों के साथ भेदभाव कर सकता है? नैतिकता के आधार पर तो बिल्कुल नहीं और यदि अनैतिक होना ही है तो हम (भारत के धर्मांध लोग/मौजूदा सरकार) ऐसा क्यों कर रहे हैं?
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इसकी कई वजह हैं जैसे वोट-बैंक, राजनीति, धर्म की राजनीति और भी कई बातें जो यहां बताना संभव नहीं। लेकिन साल 2014 से ही एक विशेष धर्म के प्रति लोगों ने जो नफरत के बीज लोगों के मन में रोपित करना शुरू किए वो आज छोटी-छोटी पौधे विचारधारा के तौर पर पल्लवित हो रहे हैं यदि इस विचारधारा को समय पर नेस्तनाबूद नहीं किया गया तो यह भारत को उस चौराहे पर लाकर खड़ा कर देगी जैसा उस विशेष धर्म के आततियों ने 11वीं शताब्दी की शुरूआत में किया था। यह मानव सभ्यता के लिए विनाशकारी हो सकता है।
यहां इस बात को समझना चाहिए कि जो लोग आज एक विशेष धर्म को बढ़ावा दे रहे हैं (देना चाहिए क्योंकि ये उनका मौलिक अधिकार है) और एक धर्म विशेष (एक पंथनिरपेक्ष देश में ऐसा करना अमानवीयता है) को निशाना बना रहे हैं। क्या वो खुद के बनाए नियमों और परंपराओं को जीवंत रख पा रहे हैं? शायद! बिल्कुल नहीं।
इसे इन उदारहणों से समझिए जो पिछले 5 साल में हुए हैं। 44 मुसलमानों की गाय के नाम पर लिंचिंग (पीट-पीट कर हत्या) कर दी गई, अंतर-धार्मिक जोड़ों को परेशान किया गया, धार्मिक अल्पसंख्यकों को फिर से हिंदू धर्म अपनाने की धमकी दी गई, मुस्लिम शासकों को शैतान के रूप में पेश करने के लिए इतिहास की किताबों का फिर से लेखन शुरू किया गया और किसी तरह के भारत के मुस्लिम शासकों के अतीत को हटाने के लिए कई शहरों का नाम बदला गया।
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हालांकि यह सिलसिला साल 2014 से पहले शुरू हो चुका था एक रिपोर्ट से पता चलता है लोग धर्मांध होकर उस राह पर चल देते हैं, जहां सिर्फ नफरत है और फिर हत्या, गाय एक जरिया बना कुछ धर्म विशेष के लोगों को निशाना बनाने के लिए जो मुस्लिम (या अन्य धर्म के लोग) हैं। जबकि ऐसी कई रिपोर्ट्स हैं जो बताती हैं कि ऐसे मामलों में जांच पर पाया गया कि हिंदू धर्म मानने वाले लोग भी यह सब बड़े पैमाने पर कर रहे थे, बाद में उन्हें कानूनन सजा भी हुई।
एक रिपोर्ट के मुताबिक मध्यप्रदेश में लगभग 1300 गौशालाएं हैं, इनमें 1.80 लाख गाय रहती हैं। गौशालाओं को 11 करोड़ रुपए का बजट आवंटन किया गया यानी प्रति गाय लगभग 1.60 रुपए, अब आप सोचिए रोज 1.60 पैसे में 1 गाय का पेट कैसे भरेगा?
यहां इस बात का जिक्र करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है, भारत की इस राजनीतिक पार्टी (पार्टी से जुड़े कई संगठन) के नेता गाय को काफी महत्व देते हैं। इतना महत्व की मरने-मारने पर वो हथियार भी उठा सकते हैं। ऐसे में गाय को खाने के लिए महज सिर्फ 1.60 पैसे अपने आप में एक बड़ा सवाल है।
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मुस्लिम धर्म का मानने वालों के प्रति नफरत पैदा करने में भारतीय मीडिया और मौजूदा सरकार के बड़े-छोटे नेताओं का अह्म योगदान रहा है। इस योगदान से उनका तो वोट बैंक बन गया लेकिन जो वोटर था, वो उस दलदल में जाकर फंसता जा रहा है, जिसके कारण कभी दिल्ली दंगे तो कभी कुछ ओर घटनाएं घटती रहती हैं। दिल्ली को दिल कहा जाता है, जब दिल तक यह नफरत पहुंच गई है तो भारत के अन्य राज्यों के शहरों और गांव में आलम क्या ठीक होगा, यह वो सवाल है जो आज के नेता और मतदाता दोनों को ही सोचना चाहिए।
ऐसे कई लोग मिलेंगे जो आपके दोस्त हो सकते हैं आपके पड़ोसी यदि वो हिंदू हैं तो मुस्लिम के प्रति और मुस्लिम हैं तो हिंदुओं के प्रति बातचीत में कुछ ऐसे शब्द कह ही देते हैं जो धर्म विशेष पर टिप्पणी या नफरत को इंगित करती हैं। ये सब साल 2015 में हुई कुछ घटनाओं से शुरू हुआ जो एक लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्ष देश में जहर की तरह हैं।
नेता राजनीतिक संगठन का हिस्सा होते हैं, जिस संगठन से वो जुड़े होते हैं उनकी विचारधारा होती है। जो वो करते हें स्वहित के लिए करते हैं, ‘हां’ ये अलग बात है कि वो देशहित का कभी सुरीला तो कभी बेसुरा राग अलाप कर वोटर को मतदान के दिन तक अपने पक्ष में बनाए रखने के लिए तरह-तरह के विकल्प खोजते हैं।
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ये विकल्प अच्छे/बुरे दोनों होते हैं। इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि इसमें नुकसान किसका होगा, हर हाल में उनका फायदा होना जरूरी है। वर्तमान में ऐसे ही कुछ नेताओं (भारतीय राजनीतिक पार्टियों से संबंधित) ने कुछ पत्रकारिता संस्थानों को अपनी विचारधारा में शामिल कर पत्रकार को जनता की आवाज नहीं बल्कि अपनी आवाज बना लिया है। ये आवाज हिंसा भी फैलाती हैं और धर्म विशेष के लोगों के बारे में नफरत का माहौल तैयार करती है।
पत्रकारिता आज खतरे में है। पत्रकारिता के नाम पर आज जो कुछ हो रहा है वह शुद्ध धंधा है जिसमें कट्टरता, मुसलमानों और दूसरे अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत का खुला प्रदर्शन होता है। सिर्फ विज्ञापन और टीआरपी के लिए पत्रकार आज पार्टी प्रवक्ता की भूमिका में आ पहुंचा है।
मीडिया पर कौन लगा सकता है लगाम
एडिटर्स गिल्ड की स्थापना 1978 में हुई थी। यह संस्था प्रेस स्वतंत्रता की रक्षा और समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के संपादकीय नेतृत्व के मानकों को बढ़ाने के लिए की गई। वर्तमान में इस संस्था के अध्यक्ष शेखर गुप्ता हैं। वो वर्तमान में द प्रिंट नाम की वेबसाइट के संस्थापक संपादक भी हैं।
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एक समय अर्नब गोस्वामी भी इस संस्था के सदस्य थे, जिन्होंने 20 अप्रैल, 2020 को खुद के स्वामित्व वाले चैनल रिपब्लिक भारत से लाइव इस्तीफा दे दिया। उनका कहना था कि, ‘संगठन की कोई विश्वसनीयता नहीं बची है क्योंकि वह फेक न्यूज़ रोकने में पूरी तरह नाकाम रही है’।
अर्नब अब भाजपा के लिए काम कर रहे हैं, उनका चैनल हिंदू धर्म का मसीहा बन सिर्फ हिंसा, नफरत और स्वहित के लिए कार्यरत है हालांकि कई लोगों को वो रोजगार देते हैं जो बेरोजगारी के दंश से जूझते भारत में कुछ हद तक बेहतर कर रहे हैं।
Global Press Freedom Index 2020 में भारत के स्थान 180 देशों में 142 वां है जो कि पिछले साल की तुलना में 2 स्थान नीचे है। इसकी कई वजह हैं। वजह आप जानते हैं। ऐसे में एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया को अब नफरत फैलाने वाले चैनल/अखबार अब न्यू मीडिया यानी वेबसाइट्स के कंटेंट पर भी गंभीरता से नजर रखने की जरूरत है ताकि पत्रकारिता के उन मूल्यों को बिकने से बचाया जा सके, जिन्हें सदियों से बचाया गया है। हर दौर में, हर समय में और आज भी बचाया जा सकता है।
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