प्रतीकात्मक चित्र।
- संजीव शर्मा।
महानगरों की मेट्रो ट्रेन हो या सामान्य ट्रेनें या फिर सार्वजनिक परिवहन सेवा से लेकर शहर की भीड़-भाड़ वाली सड़कें, इन सभी जगहों पर एक बात समान नजर आती है वह है-कानों में ईयर प्लग लगाए हुए आज की नई पीढ़ी और इस पीढ़ी के हमकदम बनते उससे पहले की पीढ़ियों के लोग..! इसे अगर ‘ईयर प्लग वाली पीढ़ी’ कहा जाए तो कुछ गलत नहीं होगा।
वैसे अभी तक युवा या नई पीढ़ी को जनरेशन एक्स और जनरेशन वाय जैसे विविध नामों से संबोधित किया जाता रहा है लेकिन अब इस पीढ़ी को ईयर प्लग जनरेशन कहना ज्यादा उचित होगा क्योंकि यह हमारी ऐसी नस्ल है जिसके लिए मोबाइल फोन, आइपैड, आइपॉड कम्प्यूटर, लैपटॉप और इसने जुड़े ईयर प्लग ही सब-कुछ हैं। अपने कान में ईयर प्लग लगाकर यह पीढ़ी अपने आपको दीन-दुनिया के मोह से दूर कर लेती है।
इस पीढ़ी को हम कभी भी और कहीं भी देख सकते हैं। ईयर प्लग के मोह में जकड़ी यह ऐसी पीढ़ी है जो एफएम चैनलों पर रेडियो जॉकी की चटर-पटर सुनते हुए अपने आप को दुनिया के दुःख-दर्दों और सामाजिक सरोकारों तक से अलग कर लेती है। इनके लिए ईयर प्लग और उसके जरिए कान में पहुंच रही बेफ़िजूल की बातें इतनी जरूरी हैं कि वे अपनी जान तक गंवा देते हैं।
यही कारण है कि आए दिन हम अखबारों और न्यूज़ चैनलों पर पढते-सुनते रहते हैं कि मोबाइल फोन पर गाना सुनते हुए युवक ट्रेन की चपेट में आ गया, फलां शहर में युवतियां ट्रेन से कट गईं या फिर बाइक सवार युवक मोबाइल के चक्कर में बस से जा भिड़े लेकिन इसके बाद भी इस पीढ़ी के कान में जूं तक नहीं रेंगती। लगातार घट रहीं ऐसी घटनाओं के बाद भी ईयर प्लग लगाकर अपनी सुध-बुध खोने वालों की संख्या बढ़ ही रही है।
खास बात यह है कि ईयर प्लग जनरेशन की नक़ल करते हुए अब उन पीढ़ियों के लोग भी इसकी चपेट में आने लगे हैं जो अपनी जवानी के दिनों में भी इस मायाजाल से दूर रहे थे। मुझे इस बात पर कतई आपत्ति नहीं है कि नई पीढ़ी ईयर प्लग को इतना महत्व क्यों दे रही है? और न ही उनके अपने मनोरंजन के साधनों पर मैं सवाल खड़े करना चाहता हूं?
ईयर प्लग के चक्कर में हमारी युवा पीढ़ी स्वयं को सामाजिक सरोकारों, पारिवारिक संस्कारों और नैतिक जिम्मेदारियों से दूर करती जा रही है। मेट्रो/बस/ट्रेन में एक बार ईयर प्लग लगा लेने के बाद यह पीढ़ी अपने आप में इतनी खो जाती है कि वह अपने पास खड़े बुजुर्ग/महिला या शारीरिक रूप से अशक्त व्यक्ति को सौजन्यवश सीट देना तक जरूरी नहीं समझती।
कई बार तो वे इन वर्गों के लिए आरक्षित सीटों पर बैठे होने के बाद भी नहीं उठते क्योंकि ईयर प्लग उन्हें किसी ओर की बात सुनने नहीं देता और आंखों की शर्मिंदगी को वे आंख मूंदकर सोने का नाटक करते हुए छिपा लेते हैं। यह स्थिति घर से बाहर भर की नहीं है बल्कि घर के अंदर भी कुछ यही हाल रहता है।
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घर में सोशल नेटवर्किंग साइटों से लेकर मोबाइल फोन, आइपैड, आइपॉड कम्प्यूटर, लैपटॉप से जुड़ा यही ईयर प्लग उन्हें अपने परिवार के साथ उठने-बैठने, गप्प लड़ाने और एक साथ भोजन करने का अवसर तक नहीं देता। इसके फलस्वरूप न वे पारिवारिक जिम्मेदारियां समझ पाते हैं और न ही अपनी परेशानियों को परिवार के साथ साझा कर पाते हैं। फिर यही दूरियां कालांतर में उन्हें अवसादग्रस्त बनाने से लेकर नशीले पदार्थों के शिकंजे में ढकेलने का काम करती हैं।
मनोवैज्ञानिक और चिकित्सक भी अब ईयर प्लग से दूरी बनाने की सलाह दे रहे हैं क्योंकि इससे बहरे होने के साथ-साथ रेडिएशन जैसे तमाम खतरे बढ़ रहे हैं। इसके अलावा, लगातार ईयर प्लग के जरिए कुछ न कुछ सुनते रहने से चिड़चिड़ापन भी बढ़ रहा है जो हमारे नैतिक मूल्यों और सामाजिक ताने-बाने को भी प्रभावित कर रहा है। यदि समय रहते ईयर-प्लग से इस लत पर रोक नहीं लगाई गई तो भविष्य में हमें नकारा, सामाजिक रूप से अलग-थलग और एकाकी जीवन जीने वाली ऐसी पीढ़ी मिलेगी जो देश तो क्या परिवार के काम भी नहीं आ पाएगी।
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