लोकतंत्र में तानाशाही की कोई जगह नहीं होती, लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में एक बार फिर तानाशाही की शुरूआत हो चुकी है। सरकार तीन कृषि कानून को बहुमत से लागू कर चुकी है। केंद्र सरकार का कहना है कि ये अभी नहीं तो कभी नहीं। लेकिन कई सवाल है। उनके जबाव हैं। हल अभी भी नहीं। इन दिनों हल सिर्फ पोस्टर में दिखाई दे रहा है या स्वयं प्रधानमंत्री की फोटो में या किसान से दिखने वाले मुस्कुराते चेहरों में, जिसे ग्राफिक डिजाइनरों ने बहुत सुंदरता से पेश किया।
बहरहाल, जो बात संसद में उठाई जा सकती थी। उस आवाज को कुछ समय के लिए चुप कर दिया गया है। संसद का शीतकालीन सत्र स्थगित कर दिया गया है। अब बजट सत्र होगा। वैसे सरकार ने यह फैसला लगभग सभी विरोधी दलों के नेताओं की सहमति के बाद किया है।
संसदीय कार्यमंत्री प्रहलाद पटेल का यह तर्क कुछ वजनदार जरुर है कि संसद के पिछले सत्र में सांसदों की उपस्थिति काफी कम रही और कुछ सांसद और मंत्री कोरोना के कारण स्वर्गवासी भी हो गए। अब अगला सत्र, बजट सत्र होगा, जो जनवरी 2021 याने कुछ ही दिन में शुरू होने वाला है।
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लेकिन बजट सत्र में क्या सिर्फ बजट की ही बात होगी या किसानों की बात होगी। ये कहना अभी ठीक नहीं लेकिन संभव है विपक्षी दल और जो सांसद अनशन पर बैठे हैं वो यह मुद्दा संसद में जरूर उठाएंगे।
इस दौरान कुछ कांग्रेसी और तृणमूल सांसदों ने आपत्ति उठाई है उनका कहना है भाजपा लोकतांत्रिक मूल्यों की अवहेलना कर रही है। आरोप लगाने वाले नेता अपनी पार्टियों में हो रही तानाशाही के बारे में हालाकि कुछ नहीं कहते हैं। इन तर्कों के बावजूद यदि सरकार चाहती तो वह सभी दलीय नेताओं को शीतकालीन सत्र के लिए राजी कर सकती थी। यदि वे उस सत्र का बहिष्कार करते तो उनकी ही नाक कट जाती।
राजनीतिक विश्लेषक डॉ. वेदप्रताप वैदिक कहते हैं कि यदि संसद का यह सत्र आहूत होता तो सरकार और सारे देश को झंकृत करने वाले कुछ मुद्दों पर जमकर बहस होती। यह ठीक है कि उस बहस में विपक्षी सांसद, सही या गलत, सरकार की टांग खींचे बिना नहीं रहते लेकिन उस बहस में से कुछ रचनात्मक सुझाव, प्रामाणिक शिकायतें और उपयोगी रास्ते भी निकलते। इस समय कोरोना के टीके का देशव्यापी वितरण, देश की आर्थिक समस्या, बेरोजगारी, किसान आंदोलन, भारत-चीन विवाद आदि ऐसे ज्वलंत प्रश्न हैं, जिन पर खुलकर संवाद होता।
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यह संवाद इसलिए भी जरुरी है कि भाजपा के प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री तथा अन्य नेतागण पत्रकार-परिषद करने से घबराते हैं। आम जनता-दरबार लगाने की तो वे कल्पना भी नहीं कर सकते। संवाद की यह कमी किसी भी सरकार के लिए बहुत भारी पड़ सकती है।
संवाद की इसी कमी के कारण हिटलर, मुसोलिनी और स्तालिन जैसे बड़े नेता मिट्टी के पुतलों की तरह धराशायी हो गए। इसमें तो विपक्षियों को जितना लाभ है, उतना किसी को नहीं है। जिन लोगों को भारत राष्ट्र और इसके लोकतंत्र की चिंता है, वे चाहेंगे कि अगले माह होनेवाला बजट सत्र थोड़ा लंबा चले और उसमें स्वस्थ बहस खुलकर हो ताकि देश की समस्याओं का समयोचित समाधान हो सके।
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