उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में सोशल मीडिया पर फैलाई गई एक झूठी खबर के बाद तनाव की स्थिति पैदा हो गई। हिंसा का रूप ले चुकी यह घटना इतनी गंभीर हो गई कि लोगों ने दुकानों को जला डाला और यह सब कुछ हुआ ‘फेक न्यूज’ के कारण, जो सोशल मीडिया में बिना जांच पड़ताल के वायरल की जाती रहीं।
भारत में फेक न्यूज की समस्या तेजी से जटिल होती जा रही है, क्योंकि देश में इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। अभी भारत में 28 फीसदी लोग इंटरनेट का उपयोग करते हैं। दुनिया में चीन के बाद भारत ऐसा दूसरा देश है, जहां इंटरनेट का उपयोग सबसे ज्यादा किया जा रहा है।
क्या होती है फेक न्यूज
फेक न्यूज वह ‘न्यूज’ है जो यह जानते हुए बनाई जाती है कि यह सच नहीं है। यदि कोई अखबार या मीडिया संस्थान गलत न्यूज जारी करता है, तो वह उसके लिए खेद प्रकट करते हैं, लेकिन फेक न्यूज में ऐसा नहीं होता। फेक न्यूज संयोगवश नहीं बनाई जाती बल्कि यह जानबूझकर की गई गलती है। यह एक सफेद झूठ होती है और इसका मकसद सिर्फ लोगों को गुमराह करना होता है। फेक न्यूज अमूमन फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया वेबसाइट्स पर तेजी से वायरल की जाती हैं।
अरुंधति राय बन चुकी हैं निशाना
कुछ महीने पहले सरकार समर्थक एक वेबसाइट और मुख्यधारा के टीवी चैनलों ने एक खबर चलाई, जिसमें कहा गया कि जानी मानी लेखिका अरुंधति राय ने कश्मीर में भारतीय सेना की भारी मौजूदगी का विरोध किया। इसके बाद समाज के राष्ट्रवादी तबके ने अरुंधति राय पर हमले तेज कर दिेए, लेकिन बाद में अरुंधति राय ने बताया कि उन्होंने तो कश्मीर में भारतीय सेना को लेकर कोई बयान ही नहीं दिया है। यह पूरी तरह से फेक न्यूज थी।
क्या कहता है कानून
भारतीय कानून ‘फेक न्यूज’ शब्द का इस्तेमाल नहीं करता। यह कहना है साइबर लॉ विशेषज्ञ मान्या वत्स का, वो बताती हैं कि, ‘साइबर सिक्योरिटी के तहत यदि कोई व्यक्ति सोशल मीडिया में भड़काऊ भाषण, अश्लील कंटेंट या हिंसा फैलाने वाले पोस्ट करता है, तो उन पर कार्रवाई की जाती है।’
एसोसिएडेट प्रेस भी कटघरे में
भारत में ऐसे कई टीवी चैनल और अखबार हैं जो फेक न्यूज का शिकार बन जाते हैं। एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि अमेरिकी अखबार द सन क्रॉनिकल के टॉम रिली ने 29 जून, 2017 को अपने एक संपादकीय में लिखा था कि एसोसिएडेट प्रेस जैसी बड़ी संस्था भी फेक न्यूज का शिकार हुई है। जबकि यह संस्था 172 साल पुरानी है।
एक अनुमान के मुताबिक दुनिया भर के 1700 अखबारों, 5000 टीवी और रेडियो ब्रॉडकास्ट एपी की स्टोरी प्रकाशित करते हैं। तो विचार कीजिए कहां-कहां फेक न्यूज पहुंच सकती है। ये उस संस्था का हाल है, जिसके 120 देशों में 200 से अधिक न्यूज ब्यूरो हैं।
सही सोर्स पर करें भरोसा
सोशल मीडिया में चलने वाली फेक न्यूज के बारे में नईदुनिया डिजिटल के संपादक सुधीर गोरे बताते हैं, ‘सोशल मीडिया कम्युनिकेशन का ऐसा माध्यम है, जहां से दुनिया भर में बात को पहुंचाया जा सकता है। यह सोशल मीडिया की ताकत है, लेकिन गैर पत्रकार सूचनाओं को इधर से उधर करने के माध्यम का दुरुपयोग करते हैं, उनसे सावधान रहने की जरूरत है। किसी भी खबर को उसे सही सोर्स के जरिए कंफर्म करने के बाद ही भरोसा करें। उन्हीं सोर्स पर भरोसा करें, जिनसे सही जानकारी मिलती है। सोशल मीडिया में कोई चीज वायरल हो रही है, उस पर आम लोगों को भरोसा नहीं करना चाहिए। किसी भी गंभीर और संवेदनशील खबरों को परखें उसे जांचे उसके बाद ही उन पर भरोसा करें। जो भरोसेमंद समाचार चैनल, अखबार और न्यूज वेबपोर्टल हैं, उनकी खबरों पर ध्यान दें। सोशल मीडिया में चलने वाली खबरों के आधार पर कोई भी फैसला न लें। खबर को कंफर्म करें।’
भारत में सोशल मीडिया
भारत सोशल मीडिया कंपनियों के लिए एक बड़ा बाजार है। दुनिया भर में व्हाट्सएप के एक अरब से ज्यादा सक्रिय यूजर्स में से 16 करोड़ भारत में हैं। वहीं फेसबुक इस्तेमाल करने वाले भारतीयों की तादाद 14.8 करोड़ और ट्विटर अकाउंट्स की संख्या 2.2 करोड़ है।
विश्वसनीयता का संकट
वरिष्ठ पत्रकार शिवअनुराग पटैरिया बताते हैं, ‘वास्तव में टेक्नोलॉजी के विकास के साथ-साथ जिस तरह सोशल मीडिया के नए आयाम के रूप में सामने आया है, उसमें विश्वसनीयता का संकट पैदा होता जा रहा है। सोशल मीडिया का उपयोग राजनीतिक निहितार्थ, स्वार्थों और षडयंत्रों के लिए जिस तरह किया जा रहा है, वह खतरे की घंटी से कम नहीं है। हाल ही में उत्तराखंड से लेकर दूसरे स्थानों पर सोशल मीडिया के जरिए गलत और भ्रामक सूचनाएं प्रसारित करने से वारदातें हो चुकी हैं। उत्तरप्रदेश में कुछ माह पहले कैराना और दूसरे स्थानों पर हिंसा भड़काने में सोशल मीडिया का इसी तरह दुरुपयोग किया गया था।’
दरअसल, भारत ही नहीं, दुनिया के और देशों में भी हाल ही में कई राजनेताओं, कंपनियों और सरकारों ने अपने हितों को साधने के लिए ‘फेक न्यूज’ का इस्तेमाल किया है। ऐसा हम ब्रेक्जिट और अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान भी देख चुके हैं। चुनौती गंभीर है और इसका जल्द से जल्द हल निकालना बेहद जरूरी है।
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