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आस्था के कुंभ में विश्वास की डुबकी लगाते करोड़ों श्रद्धालु… जब संगम से बाहर निकलते हैं तो उनके अंदर आध्यात्मिक ऊर्जा का जो संचार होता है। वो दुनिया में कहीं नहीं होता है। सदियों से यह परंपरा चली आ रही है, लेकिन हर 12 साल बाद लगने वाले कुंभ में आस्था का विहंगमय रूप जो दिखाई देता है, उसे दुनिया एकटक देखती रहती है।
इन दिनों इलाहाबाद में कुंभ जारी है। यह 12 साल बाद लगने वाला दुनिया का सबसे बड़ा आध्यात्मिक मेला है। इलाहाबाद जिसे अब लोग प्रयागराज के नाम से जानते हैं, जोकि इस आध्यात्मिक नगरी का प्राचीन नाम है। रामचरित मानस में इसे प्रयागराज ही कहा गया है। कहते हैं संगम के जल से राजाओं का अभिषेक होता था। इस बात का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में भी मिलता है।
त्रेतायुग में जब भगवान श्रीराम जब श्रृंग्वेरपुर पहुंचे तो वहां प्रयागराज का ही जिक्र आया। मत्स्य पुराण के 102 अध्याय से 107 अध्याय तक प्रयागराज तीर्थ के महत्व के बारे में विस्तार से वर्णन है। उसमें लिखा है कि प्रयाग प्रजापति का क्षेत्र है जहां गंगा, यमुना और सरस्वती बहती हैं।
कुंभ मेले का इतिहास काफी पुराना है। माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी, लेकिन कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन यानी आदिकाल से हो चुकी थी।
जब देव और दानवों ने मिलकर समुद्र मंथन किया तब समुद्र से धनवंतरि अमृत का कलश निकले, लेकिन देव और दानव दोनों ही अमृत पीना चाहते थे इस दौरान अमृत कलश से कुछ बूंद हरिद्वार, इलाहबाद, उज्जैन और नासिक में गिरीं थीं, जहां हर 12 बाद कुंभ का मेला लगता है। कुछ पुराने दस्तावेज बताते हैं कि कुंभ मेला 525 बीसी में शुरू हुआ था।
वैदिक काल में कुंभ तथा अर्धकुंभ स्नान में आज जैसा स्वरूप नहीं था। कुछ प्राचीन आलेख गुप्त काल में कुंभ के सुव्यवस्थित होने की बात करते हैं। लेकिन प्रमाणित तथ्य सम्राट शिलादित्य हर्षवर्धन 617-647 ई. के समय से मिलते हैं। बाद में आदि शंकराचार्य और उनके शिष्य सुरेश्वराचार्य ने दसनामी संन्यासी अखाड़ों के लिए संगम तट पर स्नान की व्यवस्था की थी।
राशियों से होता है इस बात का निर्धारण
कुंभ मेला कब लगेगा इस बात का निर्धारण राशि तय करती है। कुंभ के लिए जो नियम निर्धारित हैं उसके अनुसार प्रयाग में कुंभ तब लगता है जब माघ अमावस्या के दिन सूर्य और चन्द्रमा मकर राशि में होते हैं और गुरू मेष राशि में होता है।
विष्णु पुराण में बताया गया है कि जब गुरु कुंभ राशि में होता है और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है तब हरिद्वार में कुंभ लगता है। सूर्य एवं गुरू जब दोनों ही सिंह राशि में होते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन नासिक (महाराष्ट्र) में गोदावरी नदी के तट पर लगता है। गुरु जब कुंभ राशि में प्रवेश करता है तब उज्जैन में कुंभ लगता है।
साल 2016, उज्जैन में सिंहस्थ कुंभ मेला का आयोजन हुआ बारह वर्षों के अंतराल से यह पर्व तब मनाया गया था। पवित्र क्षिप्रा नदी में पुण्य स्नान की विधियां चैत्र मास की पूर्णिमा से प्रारंभ होती हैं और पूरे मास में वैशाख पूर्णिमा के अंतिम स्नान तक भिन्न-भिन्न तिथियों में सम्पन्न होती है। उज्जैन के महापर्व के लिए पारम्परिक रूप से दस योग महत्वपूर्ण माने गए हैं। उज्जैन की गणना पवित्र सप्तपुरियों में की जाती है। महाकालेश्वर मंदिर और पावन क्षिप्रा ने युगों-युगों से असंख्य लोगों को उज्जैन यात्रा के लिए आकर्षित किया है।
सनातन धर्म की रक्षा के लिए उठाए गए ये कदम
कुंभ की बात हो और अखाड़ा का महत्व माना गया है। यह शब्द सुनते ही जो दृश्य मानस पटल पर उतरता है वह मल्लयुद्ध का है। ‘अखाड़ा’ शब्द ‘अखण्ड’ शब्द का अपभ्रंश है जिसका अर्थ न विभाजित होने वाला है। आदि गुरु शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा हेतु साधुओं के संघों को मिलाने का प्रयास किया था। अखाड़ा सामाजिक व्यवस्था, एकता और संस्कृति तथा नैतिकता का प्रतीक है। समाज में आध्यात्मिक महत्व मूल्यों की स्थापना करना ही अखाड़ों का मुख्य उद्देश्य है।
वर्तमान में अखाड़ों को उनके इष्ट-देव के आधार पर निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता हैं। शैव अखाड़े इनके आराध्या भगवान शिव हैं। ये शिव के विभिन्न स्वरूपों की आराधना अपनी-अपनी मान्यताओं के आधार पर करते हैं। वैष्णव अखाड़े इनके आराध्य भगवान विष्णु हैं। ये विष्णु के विभिन्न स्वरूपों की आराधना अपनी-अपनी मान्यताओं के आधार पर करते हैं। उदासीन अखाड़ा सिक्ख सम्प्रदाय के आदि गुरु श्री नानकदेव के पुत्र श्री चंद्रदेव जी को उदासीन मत का प्रवर्तक माना जाता है। इस पन्थ के अनुयाई मुख्यतः प्रणव अथवा ‘ॐ’ की उपासना करते हैं।
महामण्डलेश्वर, कुंभ में देते हैं गुरुमंत्र
अखाड़ों की व्यवस्था एवं संचालन हेतु पांच लोगों की एक समिति होती है जो ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश व शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है। अखाड़ों में संख्या के हिसाब से सबसे बड़ा जूना अखाड़ा है इसके बाद निरंजनी और बाद में महानिर्वाणी अखाड़ा है। उनके अध्यक्ष श्री महंत तथा अखाड़ों के प्रमुख आचार्य महामण्डेलेश्वर के रुप में माने जाते हैं। महामण्डलेश्वर ही अखाड़े में आने वाले साधुओं को गुरु मंत्र भी देते हैं।
पेशवाई या शाही स्नान के समय में निकलने वाले जुलूस में आचार्य महामण्डलेश्वर और श्रीमहंत रथों पर आरूढ़ होते हैं, उनके सचिव हाथी पर, घुड़सवार नागा अपने घोड़ों पर तथा अन्य साधु पैदल आगे रहते हैं। शाही ठाट-बाट के साथ अपनी कला प्रदर्शन करते हुए साधु-सन्त अपने लाव-लश्कर के साथ अपने-अपने गंतव्य पर पहुंचते हैं।
अखाड़ों में आपसी सामंजस्य बनाने एवं आंतरिक विवादों को सुलझाने के लिए अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् का गठन किया गया है। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् ही आपस में परामर्श कर पेशवाई के जुलूस और शाही स्नान के लिए तिथियों और समय का निर्धारण मेला आयोजन समिति, आयुक्त, जिलाधिकारी, मेलाधिकारी के साथ मिलकर करता है।
वसुधैव कुटुम्बकम के रूप में अच्छा सम्बन्ध बनाए रखने के साथ आदर्श विचारों और ज्ञान का आदान प्रदान कुंभ का मूल संदेश है जो कुंभ पर्व के दौरान देखा जा सकता है। कुंभ भारत और विश्व के जन सामान्य को आध्यात्मिक रूप से एकता के सूत्र में पिरोता है।
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