ऐसा माना जाता है कि अध्यात्मिकता का अर्थ भगवान, सत्य या उस परम की खोज करना है, लेकिन हमें ऐसा कुछ भी नहीं खोजना है, बल्कि केवल देखना सीखना है। हमारे जीवन का हर पहलू बौद्धिक से ले कर धार्मिक तक, नतीजों से चल रहा है। यही आज की सबसे बड़ी समस्या बन गई है।
आध्यात्मिक गुरु सदगुरु जग्गी वासुदेव कहते हैं कि जब मैं बड़ा हो रहा था, तब मैं हर चीज़ पर संदेह करता था। पांच साल की उम्र में, अपने परिवार के साथ मंदिर जाने पर भी मेरे मन में कई तरह के सवाल उठते थे, जैसे भगवान कौन है? वह कहां है? क्या वह ऊपर रहता है? वह ऊपर कहां है? तो इन सवालों और संदेहों की वजह से मैंने कभी मंदिर में प्रवेश नहीं किया।
ऐसा अमूमन कई लोगों के मन में सवाल उठते हैं, लेकिन मेरे साथ इसका नतीजा यह था कि मेरे माता-पिता मुझे बाहर चप्पलों की निगरानी करने वाले के पास छोड़ जाते। वो मुझे बड़ी दुष्टता से अपनी पकड़ में थामे रखता था। उसे पता था कि अगर उसने दूसरी ओर देखा तो मैं भाग जाऊंगा! उम्र बढ़ने के बाद मैंने देखा कि मंदिर से आने वालों की तुलना में, रेस्टोरेंट से बाहर आने वाले लोगों के चेहरे पर ज्यादा खुशी झलकती थी। इस बात ने मुझे उलझा दिया।
‘मैंने अपने जीवन में कभी किसी चीज की तलाश नहीं की। और मेरे जीवन का प्रयास यही रहा है कि लोगों को यह सिखाया जाए कि देखा कैसे जाए। अगर आप सही मायनों में आध्यात्मिकता को जानना चाहते हों, तो किसी चीज को खोजिए नहीं बल्कि उसे देखें और सीखें।’
शंकालु होने पर भी, मैंने कभी उस शब्द के साथ भी अपनी पहचान नहीं जोड़ी। मेरे पास बहुत सारे सवाल थे पर मुझे कभी नतीजे निकालने की जरूरत महसूस नहीं हुई। मुझे बहुत पहले ही एहसास हो गया था कि मैं किसी भी चीज के बारे में कुछ नहीं जानता। जिसका मतलब था कि मुझे हर चीज पर पूरा ध्यान देना होगा। मैं किसी पानी के गिलास, पत्ते और यहां तक कि अंधकार को भी अंतहीन समय तक निहार सकता था।
धीरे-धीरे मैंने जाना कि भाषा कुछ और नहीं, बल्कि इंसानों की ओर से रची गई साजिश है। जब कोई बोलता तो मैं देखता कि वह कुछ आवाज़ें निकाल रहा है और मैं उससे अर्थ निकाल रहा हूं। फिर मैंने अर्थ निकालने बंद कर दिए और जिससे वे ध्वनियां मजेदार हो गईं। मैं उनके मुख से निकलने वाले ढांचों को देख सकता था। अगर मैं लगातार देखता रहता तो वह इंसान एक ऊर्जा के एक आकार में बदल जाता। केवल पैटर्न ही बचे रह जाते।
यह बात मुझे हमेशा अजीब लगती थी कि संसार, ‘मैं नहीं जानता’ कि विशाल अवस्था को क्यों नहीं जानता। जो लोग इस अवस्था को मान्यताओं और विश्वासों से नष्ट कर देते हैं, वे भूल जाते हैं कि ‘मैं नहीं जानता’, एक भव्य द्वार है जानने का एकमात्र द्वार!
जब मेरी आंखें खुली रहतीं तो हर चीज मुझे लुभाती। लेकिन हैरानी की बात यह थी कि आंखें बंद रहने पर ऐसा और भी ज्यादा था जो मेरा ध्यान अपनी ओर खींचता था हमारा शरीर की नब्ज़ का चलना, अंगों का काम करना, भीतरी ऊर्जा की गति, सारी शरीर रचना कैसी संतुलन में सधी है आदि। मैंने पाया कि सारी सीमाएं केवल बाहरी जगत के लिए हैं।
‘मैं अपने ‘यह या वह’ होने के एक सादे से उत्तर पर आने की बजाए यह देख रहा था कि अगर मैं चाहता तो मैं कुछ भी हो सकता था। यहां तक कि ‘मैं’ की निश्चितता भी ढह गई थी। इस अभ्यास ने मुझे पिघला दिया। मैं एक अनिश्चित प्राणी बन गया।’
इस सीमारहित अज्ञान की अवस्था में, कोई भी चीज़ मेरा ध्यान अपनी ओर खींच सकती थी। इस तरह मेरे पिता, जो एक डॉक्टर थे, परेशान हो गए। उनका मानना था कि मुझे मानसिक चिकित्सा की ज़रूरत है। यह बात मुझे हमेशा अजीब लगती थी कि संसार, ‘मैं नहीं जानता’ कि विशाल अवस्था को क्यों नहीं जानता। जो लोग इस अवस्था को मान्यताओं और विश्वासों से नष्ट कर देते हैं, वे भूल जाते हैं कि ‘मैं नहीं जानता’, एक भव्य द्वार है जानने का एकमात्र द्वार!
बिना उद्देश्य के देखने की क़ाबिलियत दुनिया से ख़त्म होती जा रही है। हर कोई एक मानसिक जीव की तरह, हर चीज को एक मतलब देना चाहता है। आध्यात्मिकता का अर्थ यह नहीं कि हमें भगवान, सत्य या उस परम की खोज करनी है। यह हमारे बोध को बढ़ाने से जुड़ी है, इस तरह आपकी देखने की क्षमता बढ़ती है। मैंने अपने जीवन में कभी किसी चीज की तलाश नहीं की। और मेरे जीवन का प्रयास यही रहा है कि लोगों को यह सिखाया जाए कि देखा कैसे जाए। अगर आप सही मायनों में आध्यात्मिकता को जानना चाहते हों, तो किसी चीज को खोजिए नहीं बल्कि उसे देखें और सीखें।
Be First to Comment