मन वो उपकरण है जो हमारे आस पास होने वाली हर चीज़ का बोध कराता है। ऐसे में अगर मन पुरानी बातों की छाप अपने ऊपर ढो रहा हैं, तो चीजों को साफ-साफ और गहराई से देखना मुश्किल हो जाएगा। सब कुछ साफ देखने के लिए मन दर्पण की तरह होना चाहिए।
अगर मन में रचनात्मकता पैदा करनी है, तो हमें अपने मन को एक खास स्तर तक विकसित करना होगा, जहां वह वस्तुस्थिति को विकृत करके न देखे। अगर आप हमेशा जीवन का बोझ लेकर चल रहे हैं, तो आप चीजों को वैसे नहीं देख पाएंगे जैसी वो हैं। योग में मन को हमेशा दर्पण के समान समझा जाता है।
दर्पण आपके लिए तभी उपयोगी हो सकता है, जब वह पूरी तरह साफ और समतल हो। अगर वह लहरदार है या उस पर कुछ धूल आदि जमी हुई है, तो इसमें चीजें आपको वैसी नहीं दिख पाएंगी, जैसी वे हैं।
दर्पण की प्रकृति ही ऐसी होती है। अगर अभी आप उसके सामने जाएं तो यह अपने अंदर आपकी संपूर्ण भव्यता को बिल्कुल वैसा का वैसा दिखा देगा। लेकिन जैसे ही आप इसके सामने से हटते हैं, यह आपको पूरी तरह छोड़ देगा: शत-प्रतिशत। फिर इसमें आपका कुछ नहीं दिखेगा।
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सद्गुरु बताते हैं कि ऐसे में आपका थोड़ा सा अंश भी यह अपने अंदर नहीं रखेगा। अब अगला व्यक्ति आता है और दर्पण के सामने खड़ा होता है। अब यह इस इंसान की संपूर्ण भव्यता को दिखाने लगेगा। लाखों लोग एक ही दर्पण में अपने आपको देख सकते हैं, लेकिन उनमें से कोई भी उस दर्पण पर अपना जरा सा भी असर नहीं छोड़ सकता।
अगर आप अपने मन को भी इस तरह रखें कि जीवन के अनुभव आपके मन पर कोई विशेष प्रभाव न छोड़ पाएं तो आप चीजों को उसी रूप में देख सकते हैं, जैसी वे हैं। तब आपके पास भरपूर अवसर होगा कि आप अपने जीवन के हर पहलू को नयेपन के साथ रच सकें।
जब आप किसी चीज को उसके वास्तविक रूप में देख पाते हैं तो फिर उसे वैसा बनाना बड़ा आसान हो जाता है, जैसा आप चाहते हैं। यह एक खास स्तर की सहभागिता है, खास किस्म का जुड़ाव है, जो आप विकसित करते हैं।
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जब आप ऐसा नहीं सोचते कि एक चीज महत्वपूर्ण है और दूसरी नहीं, या फिर आपको फलां काम करना पसंद है और फलां काम नहीं, जब चीजों को लेकर आपके मन में ऐसा कोई भेदभाव नहीं रह जाता, तो आप हर चीज को बस उस तरह देखते हैं जैसी वह है।
जब आप चीजों को इस तरीके से देखने लगते हैं तो कोई भी रचना करना बहुत आसान हो जाता है क्योंकि ऐसे में सवाल बस यह रह जाता है कि आपके पास क्या सामग्री है और उसे आप किस तरह इस्तेमाल कर रहे हैं।
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